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आ प॒श्चाता॑न्नास॒त्या पु॒रस्ता॒दाश्वि॑ना यातमध॒रादुद॑क्तात् । आ वि॒श्वत॒: पाञ्च॑जन्येन रा॒या यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā paścātān nāsatyā purastād āśvinā yātam adharād udaktāt | ā viśvataḥ pāñcajanyena rāyā yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

आ । प॒श्चाता॑त् । ना॒स॒त्या॒ । आ । पु॒रस्ता॑त् । आ । अ॒श्वि॒ना॒ । या॒त॒म् । अ॒ध॒रात् । उद॑क्तात् । आ । वि॒श्वतः॑ । पाञ्च॑ऽजन्येन । रा॒या । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥ ७.७३.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:73» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

अब परमात्मा समष्टिरूप से उन्नति करने का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सत्यवादी अध्यापक तथा उपदेशको ! तुम लोग (आ पश्चातात्) भले प्रकार पश्चिम दिशा से (आ पुरस्तात्) पूर्वदिशा से (अधरात्) नीचे की ओर से (उदक्तात्) ऊपर की ओर से (आ विश्वतः) सब ओर से (पाञ्चजन्येन) पाँचों प्रकार के मनुष्यों का (राया) ऐश्वर्य्य बढ़ाओ और (अश्विना) हे अध्यापक तथा उपदेशकों ! आप लोग पाँचों प्रकार के मनुष्यों को (आ) भले प्रकार (यातं) प्राप्त होकर सब यह प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! (यूयं) आप (सदा) सदा (स्वस्तिभिः) मङ्गलरूप वाणियों द्वारा (नः) हमको (यात) पवित्र करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र में “पञ्चजना” शब्द से ब्राह्मणादि चारों वर्ण और पाँचवें दस्युओं से तात्पर्य है, जैसा कि पीछे लिख आये हैं। परमात्मा आज्ञा देते हैं कि हे अध्यापक तथा उपदेशको ! आप लोग सब ओर से सम्पूर्ण प्रजा को प्राप्त होकर अपने उपदेशों द्वारा मनुष्यमात्र की रक्षा करो और सब यजमान मिलकर कल्याणरूप वेदवाणियों से यह प्रार्थना करो कि हमारे उपदेशक हमको अपने सदुपदेशों से सदा पवित्र करें ॥ जो मनुष्य अध्यापक तथा उपदेशकों द्वारा सदैव उत्तमोत्तम गुणों को उपलब्ध करते और वेदवाणियों से अपने आपको पवित्र करते रहते हैं, वे सदाचारी होकर सदैव उन्नतिशील होते हैं ॥५॥ यह ७३वाँ सूक्त और २०वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

अथ समष्टिरूपेणोन्नतिः कर्तव्या इत्युपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सत्यवादिनौ अध्यापकोपदेशकौ ! युवां (आ पश्चातात्) पश्चिमदिशा (आ पुरस्तात्) पूर्वतः (अधरात्) अधस्तात् (उदक्तात्) उपरिष्टात् (आ विश्वतः) किं बहुना समन्तात् (पाञ्चजन्येन) पञ्चविधमनुष्यहितकारकं (राया) धनं वर्द्धयतम् अथ च (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ, भवन्तौ पञ्चविधमनुष्यान् (आयातम्) प्राप्य सर्वे मिलित्वा इदं प्रार्थयन्तां यत् हे भगवन् ! (यूयम्) भवान् (सदा) सर्वदा (स्वस्तिभिः) माङ्गलिकैर्वचोभिः (नः) अस्मान् (पात) रक्ष ॥५॥ इति त्रिसप्ततितमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥